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उठो / भवानीप्रसाद मिश्र

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बुरी बात है

चुप मसान में बैठे-बैठे

दुःख सोचना , दर्द सोचना !

शक्तिहीन कमज़ोर तुच्छ को

हाज़िर नाज़िर रखकर

सपने बुरे देखना !

टूटी हुई बीन को लिपटाकर छाती से

राग उदासी के अलापना !


बुरी बात है !

उठो , पांव रक्खो रकाब पर

जंगल-जंगल नद्दी-नाले कूद-फांद कर

धरती रौंदो !

जैसे भादों की रातों में बिजली कौंधे ,

ऐसे कौंधो ।