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नयी दिशा / महेन्द्र भटनागर

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चारों ओर है गतिरोध !

पथ अवरुद्ध,

खंडित मान्यताएँ हीन,

जर्जर रूढ़ियों की सामने प्राचीन

फैली 'चीन की दीवार' !

कैसे चढ़ सकोगे

और कैसे कर सकोगे पार ?

बोलो !

ये पुरातन नीतियाँ, विश्वास,

मृत औ' संकुचित दर्शन पुराना ले,

पुरानी धारणाओं से,

पुरानी कल्पनाओं से

कभी क्या जीत पाओगे ?

कभी अपने बनाये लक्ष्य को

साकार कर क्या देख पाओगे ?

बदलते विश्व के सम्मुख,

कि अनुसंधान

जब विज्ञान के बढ़ते चले जाते,

नये साधन, कलें नूतन

व आविष्कार बढ़ प्रतिपल

चुनौती आज

गर्वोन्नत 'जगत की छत' खड़े पामीर को देते,

उठे एवरेस्ट,

गहन प्रशान्त-सागर को,

अनेकों ग्रह-सितारों को,

चमकते दूर चंदा को,

नये उन्नत विचारों के सहारे

जो सतत अधिकार में अपने

सदा करते बढ़े जाते !

हुए पूरे

न होनी आज चाहों के सभी सपने !

ज़रा उठ खोल तो आँखें

नयी फैली दमकती रोशनी के सामने !

लो फिर करो उपयोग,

तुम हर वस्तु का उपभोग !

मनुज हो तुम

लिए बल-बुद्धि का भंडार,

मनुजता के सभी अधिकार,

प्रगति का है तुम्हें वरदान,

दुर्दम शक्ति का अभिमान,

तुम्हारा ध्येय है

तोड़ो पुरानी ज़िन्दगी के तार,

जिनमें बज न सकती अब मधुर झंकार !

कहाँ तक कर सकोगे शोध ?

है सब व्यर्थ सारा क्रोध !

जब सब डगमगायी हैं दीवारें

नींव से -

गिर कर रहेंगी ही,

कि जब ये आँधियाँ चल दीं क्षितिज से

शीघ्र आ घिर कर रहेंगी ही !

तुम्हें तो छोड़ना है

आज यह अपनत्व की

हर वासना का रूप,

कर दो बन्द

तम से ग्रस्त अवनति कूप !

असफल मोह से कर द्रोह,

मिथ्या स्वप्न की माया,

खड़ी बन शून्य की

निस्सार धुँधली क्षीण-सी छाया

कि जिसमें है न कोई आज आकर्षण !

निरर्थक क्या ?

अरे घातक !

सजग हो जा

नहीं तो नाश निश्चित है,

खड़ा हो जा

सुदृढ़ चट्टान-सा बनकर

नहीं तो धर्म तेरा रे कलंकित है,

कि बढ़कर रोक ले तूफ़ान

वरना आज

पौरुष धैर्य विगलित है !

न हो भयभीत

तेरे सामने हुंकारता है बढ़

ज़माना नव्य,

भावी विश्व की ले कल्पना दृढ़ भव्य !

जनता की प्रखर आवाज़

गूँजी आज,

जो किंचित नहीं अब चाहती है

'ताजवालों' का कहीं भी राज !

पीड़ित, त्रस्त, शोषित, सर्वहारा की

उमड़ती बाढ़-सी धारा,

लगाकर यह गगन-भेदी सबल नारा -

नयी दुनिया बनानी है !

न होगा चिन्ह जिसमें एक भी

मृत घृणित पूँजीवाद का,

बरबाद होगा विश्व से

हर रूप तानाशाह का,

केवल जगत् नव-साम्य-पथ पर

ले सकेगा साँस,

सुख की साँस !

जिसमें आस

नूतन ज़िन्दगी की ही भरी होगी,

कि जिसकी राह पर चलकर

धरा सूखी हरी होगी !

मिटा देगा उसी पथ का बटोही

दु:ख के पर्वत,

विषमता की गहनतम खाइयाँ

सब पाट देगा

कर्म का उत्साह,

नूतन चेतना की प्रेरणा से

ये पुराने सब

क़िले, दीवार, दर्रे टूट जाएँगे !

1949