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मुक्तक-46 / रंजना वर्मा

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लोग ताने यूँ ही कसते नहीं हैं
अश्रु यूँ ही कभी रिसते नहीं हैं।
बहुत सुखी हैं साथ बच्चों के
विदेश जा के जो बसते नहीं हैं।।

कहाँ पांव रक्खें सतह ढूंढ़ते हैं
कि हम पागलों की तरह ढूंढ़ते हैं।
कभी मौत को देख नजरें चुराते
कभी जिंदगी की वजह ढूंढ़ते हैं।।

भर उमंग उठ पड़ी राधिका सुना श्याम आया
पद्मानन खिल उठा अभी तक था जो मुरझाया।
तरु की ओट खड़ा मनमोहन अधर धरे वंशी
नयनों से जब मिले नैन अन्तरतम मुसकाया।।

व्याकुल होकर उठी राधिका इधर उधर झाँके
सपने में था श्याम सांवरा कहाँ गया ताके।
विरह वेदना हो अधीर अति शिथिल पड़ी काया
लगी कोसने खेल निराले पामर विधना के।।

क्षणिक झलक पायी थी तेरी सपने में
तुझ को ढूंढ रही गैरों में अपने में।
कहते सब जो साँवरिया को याद करे
पाता वह आनन्द नाम को जपने में।।