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मुक्तक-50 / रंजना वर्मा

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छोड़ बादलों का घर नभ से बूंदों को झरते देखा
गुपचुप नील गगन को धरती से बातें करते देखा।
देखा आज पवन के रथ पर चढ़ी खुशबुओं की टोली
नयनों की गगरी में स्नेह सुधा का रस भरते देखा।।

यूँ तो क्षुब्ध हुआ है चन्दा
किन्तु प्रबुद्ध हुआ है चन्दा।
देख झील में बिम्ब स्वयं का
खुद पर लुब्ध हुआ है चन्दा।।

वह कौन जानने को उत्सुक है जग सारा
जिस से सब हारे वह मोहन जिस से हारा।
मनमोहन के भी मन को मुग्ध किया जिस ने
जिस की छवि पर न्यौछावर है त्रिभुवन सारा।।

किसी को भी' अपना बनाने से पहले
तरस दुश्मनों पर भी' खाने से पहले।
मिलेंगी कई मुश्किलें हर डगर पर
जरा सोचना पग बढ़ाने से पहले।।

जमाने का बदलता दौर क्या करना
हुआ पतझर कभी थे बौर क्या करना।
हमें यह मोह माया बाँध क्यों पाये
भला संसार का अब और क्या करना।।