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मुक्तक-54 / रंजना वर्मा

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न हो स्तुति तो दर भगवान का भी छूट जाता है
बना हो भाग्य भी इंसान का तो फूट जाता है।
बंधी यह डोर है ऐसी दिलों को जोड़ जो रखती
प्रशंसा ग़र न हो तो दिल सभी का टूट जाता है।।

असंतुष्ट हर सीमा पर जो डटा हुआ सेनानी है
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण सभी जगह मनमानी है।
थोड़ा है वेतन सेना का बढ़ता कर्ज किसानों का
अब जवान या जय किसान का नारा ही बेमानी है।।

है अनोखी डगर जिंदगी
एक नन्ही उमर जिंदगी।
इसका हर पल नयी रौशनी
प्यार का इक सफ़र ज़िंदगी।।

हो रहा यामिनी का गमन साथियों
सूर्य का हो रहा आगमन साथियों
है किरन खिड़कियां खटखटाने लगी
विश्व करने लगा है नमन साथियों।।

श्याम को वंशी बजाना आ गया है
मुग्ध कलियों को खिलाना आ गया है।
साथ ले कर गोपियों को ग्वाल को अब
रास मधुबन में रचाना आ गया है।