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युग-परिवर्तन / महेन्द्र भटनागर

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नये प्रभात की प्रथम किरण

विलोक मुसकरा रहा गगन !

इधर-उधर सभी जगह

नवीन ज़िन्दगी के फूल खिल गये,

सिहर-सिहर कि झूम-झूम

एक दूसरे को चूम-चूम मिल गये !

धूल बन गया पहाड़ अंधकार का,

अटूट वेग है ज़मीन पर

नयी बयार का !

कि साथ-साथ उठ रहे चरण,

कि साथ-साथ गिर रहे चरण !

नये प्रभात की नयी बहार बीच

जगमगा उठा गगन !

कि झिलमिला उठा गगन !

उर्वरा धरा सुहाग पा गयी,

शरीर में हरी निखार आ गयी !

निहार लो उभार रूप का

पड़ा है सिर्फ़

रेशमी महीन आवरण

अतेज घूप का !

बिजलियों ने कर लिया शयन,

हहरती आँधियाँ पड़ीं शरण,

विकास का सशक्त काफ़िला नवीन

कर रहा सुदृढ़ भवन-सृजन !

बेशरम रुके खड़े हैं राह पर,

कि कापुरुष के कंठ से

निकल रहा कराह-स्वर,

सभीत दुर्बलों के बंद हैं नयन,

व मोच खा गये चरण !

1950