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नारी / महेन्द्र भटनागर

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चिर-वंचित, दीन, दुखी बंदिनि!
तुम कूद पड़ीं समरांगण में,
भर कर सौगंध जवानी की
उतरीं जग-व्यापी क्रंदन में,
युग के तम में दृष्टि तुम्हारी
चमकी जलते अंगारों-सी,
काँपा विश्व, जगा नवयुग, हृत-
पीड़ित जन-जन के जीवन में!


अब तक केवल बाल बिखेरे
कीचड़ और धुएँ की संगिनि
बन, आँखों में आँसू भर कर
काटे घोर विपद के हैं दिन,
सदा उपेक्षित, ठोकर-स्पर्शित
पशु-सा समझा तुमको जग ने,
आज भभक कर सविता-सी तुम
निकली हो बन कर अभिशापिन!


बलिदानों की आहुति से तुम
भीषण हड़कम्प मचा दोगी,
संघर्ष तुम्हारा नहीं रुकेगा
त्रिभुवन को आज हिला दोगी,
देना होगा मूल्य तुम्हारा
पिछले जीवन का ऋण भारी,
वरना यह महल नये युग का
मिट्‌टी में आज मिला दोगी!


समता का, आज़ादी का नव-
इतिहास बनाने को आयीं,
शोषण की रखी चिता पर तुम
तो आग लगाने को आयीं,
है साथी जग का नव-यौवन,
बदलो सब प्राचीन व्यवस्था,
वर्ग-भेद के बंधन सारे
तुम आज मिटाने को आयीं!