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प्रतीक / महेन्द्र भटनागर

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अर्ध्द-खिले फूलों का

सह-बंधन
तुम
मेरे कमरे में रख
जाने कब
चली गयीं !
जैसे
चमकाता किरणें
कई-कई
अन-अनुभूत अछूते
भावों का दर्पण
तुम
मेरे कमरे में रख
जाने कब,

अपने हाथों
छली गयीं !

जीवन का अर्थ
अरे
सहसा बदल गया,
गहरे-गहरे गिरता
जैसे कोई सँभल गया
भर राग उमंगें
नयी-नयी !
भर तीव्र तरंगें
नयी-नयी !