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यार मेहरबां न हुआ ! / सुरेश स्वप्निल

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मुद्दतों दिल में रहा और हमज़ुबाँ न हुआ
वस्ल की शब भी मेरा यार मेहरबाँ न हुआ

एक हम हैं के: ख़िज़ाँ में भी मुस्कुराते हैं
एक वो: है के: बहारों में शादमाँ न हुआ

लोग गढ़ते रहे हर रोज़ जफ़ा के क़िस्से
मेरी जानिब से कभी यार बदगुमाँ न हुआ

क़त्ल कर ही दिया उसने हमें रफ़्ता-रफ़्ता
शुक्र है, दर्द-ए-दिल हमारा रायगाँ न हुआ

उसके इनकार के सदमात दूर तक पहुँचे
दरिय:-ए-अश्क हद-ए-चश्म से रवाँ न हुआ

यूँ तो हर सिम्त नज़र आता है उसका चेहरा
जहाँ तलाश किया वो: वहाँ-वहाँ न हुआ !

( 2013 )