हम खुद
तोड़ रहे हैं अपने को !
ताज़्जुब कि
नहीं करते महसूस दर्द !
इसलिए कि
मज़हब का आदिम बर्बर उन्माद
नशा बन कर
हावी है
दिल पर सोच-समझ पर।
हम ख़ुद
हथगोले फोड़ रहे हैं अपने ही ऊपर !
पागलपन में
अपने ही घर में
बारूद बिछा कर सुलगा आग रहे हैं
अपने ही लोगों पर करने वार-प्रहार !
हम ख़ुद
छोड़ रहे हैं रूप आदमी का
और पहन आये हैं खालें जानवरों की
गुर्राते हैं
छीनने-झपटने जानें
अपने ही वंशधरों की !