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रेत (अेक) / राजेन्द्र जोशी

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बिछ्योड़ी रैवै सोनलिया रेत
गळबाथी बादळां रै हिवड़ै सागै
नीं बरसण री फिकर
नीं तावड़ै री चावना
निरांत-नैछै में सोनै बरगी सांवठी रेत।

आखै दिन सूरज री तपत झेलती
नीं होवै रंग-बिदरंग
बिछ्योड़ी रैवै गळीचै दांई
आपरै हेताळुआं नै नूंतो देवै
तारां छाई रात
समदर रूप धरै सोनलिया माटी।

इण माटी मांय रमण सारू
दिन बिसूंजण सूं पैली-पैली
आवण रो संदेसो भेज्यो, बेगो म्हैं आवूं हूं
पीळी-पीळी इण माटी में
रात चकरिया थारै सागै
गळबाथी घाल ठंडी रेत रमण सारू।
म्हारा सांवरा!
थारी ठौड़ सदा उडीकै
थूं ई म्हारो जीवणदाता
थूं ई म्हारो संसार है
बिना बरस्यां ई किरपा थारी,
नीं बरसै तो नीं बरसै
किरपा सदा बणाई राखै
इण माटी सागै
रोज रमण नै आतो रैईजै
थूं नीं बरसै तो
हेताळू थारी है माटी
खुद रेत बरसैला बादळ बण'र।