Last modified on 18 जुलाई 2008, at 02:20

मजबूर / महेन्द्र भटनागर

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:20, 18 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह=आहत युग / महेन्द्र भटनागर }} जि...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जिन्दगी जब दर्द है तो
हर दर्द सहने के लिए
मजबूर हैं हम !

राज है यह जिन्दगी जब
खामोश रहने के लिए
मजबूर हैं हम !

है न जब कोई किनारा
तो सिर्फ़ बहने के लिए
मजबूर हैं हम !

ज़िन्दगी यदि जलजला है
तो टूट ढहने के लिए
मजबूर हैं हम !

आग में जब घिर गये हैं
अविराम दहने के लिए
मजबूर हैं हम !

सत्य कितना है भयावह !
हर झूठ कहने के लिए
मजबूर हैं हम !