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पूर्वाभास / महेन्द्र भटनागर

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बहुत पीछे
छोड़ आये हैं
प्रेम-संबंधों
शत्रुताओं के
अधजले शव!
खामोश है
बरसों, बरसों से
तड़पता / चीखता
दम तोड़ता रव!
इस समय तक _
सूख कर अवशेष
खो चुके होंगे
हवा में!
बह चुके होंगे
अनगिनत
बारिशों में!
जब से छोड़ आया
लौटा नहीं;
फिर, आज यह क्यों
प्रेत छाया
सामने मेरे?
शायद,
हश्र अब होना
यही है _
मेरे समूचे
अस्तित्व का!
हर ज्वालामुखी को
एक दिन
सुप्त होना है!
सदा को
लुप्त होना है!