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हम पहुंच तो गये हैं दरे-यार तक / रतन पंडोरवी

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हम पहुंच ति गये हैं दरे-यार तक
फिर भी हासिल नहीं उस का दीदार तक

शर्म जुरअत की रह जाये अब ऐ ख़ुदा
हाथ पहुंचा मिरा दामने-यार तक

अब जो इक़रार भी हो तो क्या फायदा
ज़िन्दगी थी मिरी तेरे इंकार तक

इश्क़ को चाहिए हुस्न को जीत ले
हुस्न का नाज़ है इश्क़ की हार तक

अक़्ल ने जाल फैला दिये ऐ जुनूँ
अब है दुश्मन तिरा फूल से ख़ार तक

दिलबरी आओ की हम को तस्लीम है
लेकिन इस में नहीं बूए-ईसार तक

वो तमन्ना तमन्ना नहीं ऐ 'रतन'
खत्म हो जाये जो महज दीदार तक।