Last modified on 23 जुलाई 2008, at 21:43

शुभैषी / महेन्द्र भटनागर

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:43, 23 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह=जीने के लिए / महेन्द्र भटनागर }...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बद्दुआओं का
असर होता अगर ;
वीरान
यह आलम
कभी का
हो गया होता !

जाग उठता
हर क़दम पर
आदमी का दर्प-दुर्वासा !
चिरन्तन
प्रेम का सोता
रसातल में
कभी का
खो गया होता !

कहाँ हो तुम
पुनीत शकुन्तले !
अभिशाप की
जीवन्त पंकिल प्रतिक्रिया !
कहाँ हो तुम ?