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खुद नहीं आये न भेजा कोई पैग़ाम तक / ईश्वरदत्त अंजुम

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खुद नहीं आये न भेजा कोई पैग़ाम तक
राह उनकी हमने देखी ज़िन्दगी की शाम तक

ज़िन्दगी के पेचो-खम से तक चुका हूँ इस क़दर
कब पहुंचता है सफ़र ये देखिये अंजाम तक

आप से रग़बत है हमको आओ से है वास्ता
लोग वरना राबिता रखते हैं अपने काम तक

मैं कभी भूला नहीं हूँ फ़र्ज़ की तक्लीम को
और लड़ा हूँ ज़िन्दगी से ज़िन्दगी की शाम तज

थरथराई ये ज़मीं सकते में आया आसमां
ग़म से घबरा के बढ़ा जब हाथ मेरा जाम तक

याद रहता है फ़क़त हम को उसी का नाम अब
बेख़ुदी में भूल बैठे हैं हम अपना नाम तक

मतलबी दुनिया में अंजुम तेरे ग़म बांटेगा कौन
राबिता रक्खेंगे तुम से लोग अपने काम तक।