Last modified on 23 अगस्त 2018, at 21:51

हवा चले वरक़-ए-आरज़ू पलट जाए / शहरयार

Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:51, 23 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहरयार |अनुवादक= |संग्रह=सैरे-जहा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हवा चले वरक़-ए-आरज़ू पलट जाए
तुलूअ' हो कोई चेहरा तो धुँद छट जाए

यही है वक़्त कि ख़्वाबों के बादबाँ खोलो
कहीं न फिर से नदी आँसुओं की घट जाए

बुलंदियों की हवस ही ज़मीन पर लाई
कहो फ़लक से कि अब रास्ते से हट जाए

गिरफ़्त ढीली करो वक़्त को गुज़रने दो
कि डोर फिर न कहीं साअ'तों की कट जाए

इसी लिए नहीं सोते हैं हम कि दुनिया में
शब-ए-फ़िराक़ की सौग़ात सब में बट जाए।