जापान में आठवीं शताब्दी में सेदोका(sedôka.) प्रचलित रहा ।उसके बाद इसका प्रचलन कम होता गया । इसका स्थान ताँका आदि छन्दों ने ले लिया । सेदोका कविता प्रेमी या प्रेमिका को सम्बोधित होती थी । यह 5-7-7, 5-7-7, की दो आधी या अधूरी रचनाओं से मिलकर बनता था , जिसे कतौता (katauta – KAH-TAH-OU-TAH )कहा जाता था । ये 2 आधी -अधूरी कविताएँ मिलकर एक सेदोका बनती थी ।
ये दोनों भाग प्रश्नोत्तर रूप में या किसी संवाद के रूप में भी हो सकते थे । आठवीं शताब्दी के बाद इसको प्रयोग बहुत कम हुआ है ।एक बात और महत्वपूर्ण है -‘कतौता का अकेले प्रयोग प्राय: नहीं मिलता । ये जहाँ भी आएँगे ,एक साथ कम से कम दो ज़रूर होंगे । इसमें किसी एक विषय पर एक निश्चित संवेदना ,कल्पना या जीवन -अनुभव होना ज़रूरी है । दो में से प्रत्येक कतौता अपनी जिस संवेदना को लेकर चलता है , वह दूसरे से जुड़कर पूर्णता प्राप्त करता है ।विषयवस्तु का प्रतिबन्ध कतौता में नहीं है , कारण -यह किसी न किसी संवेदना से जुड़ी कविता है ।इसे एक से अधिक अवतरण तक विस्तार दिया जा सकता है । इसकी सीमा 38 वर्ण के एक अवतरण तक सीमित नहीं। तुकान्त / अतुकान्त का भी कोई बन्धन नहीं ।
[सन्दर्भ -त्रिवेणी [[1]]
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ,डॉ हरदीप सन्धु