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सम्मोहन / महेन्द्र भटनागर

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मधु-ऋतु

आगमन पर
बंधु,
इतराओ नहीं !
इतना भरोसा मत करो
मधु-ऋतु मोहिनी पर,
इस क़दर
धरती-गगन में झूम कर
उल्लास-रस गाओ नहीं !

अस्तित्व
इसकी सुरभि का
कुछ दिनों का,
भोग-अनुभव
कुछ क्षणों का !

मधु-ऋतु गंध पर
विश्वास कर
निर्भर नहीं इतना रहो
मन !
भावना की तीव्र धारों में
नहीं इतना बहो
मन !

यह अल्प-जीवी
बिखर कर
छितर जाएगी,
रख न पाओगे
तनिक भी
बाँध कर तुम !
यह मनोरम गंध
मधु-ऋतु की !
वस्तु —
लहराती हुई,
आकाश की ऊँचाइयाँ
छूती हुई,
उन्मुक्त अल्हड़
मंद शीतल वायु की
जुड़वाँ सहेली !

मत करो इच्छा
समझने-जानने की
गूढ़ उलझी जटिल और अबूझ
पहेली !

चेतना हत
भूल कर
होना न सम्मोहित,
समर्पित;
स्पर्श पा
मधुमास का,
उसकी सुखद
मधु-श्वास का !