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सुनसान गाड़ी / शकुन्त माथुर

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शून्य निशि में
और ऊँची - ऊँची पतली राह पर
धूल के बादल उठाती जा रही थी
एक वह सुनसान गाड़ी।

गाड़ीवाला हो उनींदा डूब जाता
दूर पड़कर साथ चलती छाँह में —
गाँव सारे भर चुके थे
रात से।
उन ग़रीबों के घरों में
मन्द दीपक बुझ चले थे
पास आती फिर निकल जाती हुई
वे रोज़ सन्ध्या की आवाज़ें
उन कुओं पर अब नहीं थीं दूर तक।

घाट भी सूना पड़ा था
पंछियों के स्वर समेटे
नींद में थे पेड़,
केवल वायु की कुछ सरसराहट
भय से जगा देती थी गाड़ीवान को,
और गाड़ी जा रही थी
धीरे-धीरे
चीरती सुनसान को