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सना / कुमार मुकुल

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सना............

माधुर्य में डूबी आवाज है यह
हल्की रेघाती सी
एक अदृश्य डोर सी उसे समेटती हुयी

सना तो घूमकर नहीं देखती
बस, डूबती जाती है ध्‍वनि के उस मीठे झरने में
फिर जागती सी फैला देती है बाहें, हवा में

सना ....आवाज देता हूं मैं
और चुपचाप चली आती है वह गोद में
फिर हम बाहर आ जाते हैं
बदली है और मौसम हरा है भीगा सा
पेडों के पत्ते अपनी आभा में उमग से रहे...
चुपचाप
निहारे जा रही है वह सुषमा को एकटक
तभी
सुषमा के ताप को हल्केु कंपाती सी
एक गूंज उठती है किसी झुरमुट से
टि..उ..टि..उ...
उं...अपनी चुप्पी को इस तरह खोलती है वह
टि...उ...टि ...उ...
उं..........
उं............जोडता हूं मैं भी उसमें अपनी फटी सी आवाज
हूंउ...हूंउ... चिडिया...
तभी एक कौवा गुजरता है
कॉंव कॉव करता
हुम...हुम...
जैसे पहचानती हो इस आवाज को
कॉव..कॉव ...
हुम...हुम...
हूं...हूं ...कौआ...कौआ
तभी लड पडता है कुत्तों का झुंड पास के खेत में
भों भों...हॉंव हॉंव...
अचानक डर कर कॉंप जाती है वह
उसे समेटता कहता हूं मैं
कुत्तेे ...कुत्ते...
भों...भों...हांउ...हांउ
कुछ नहीं बोलती है वह
बस देखे जाती हे उन्हें..........
फिर
उं...........
क्या हुआ
उं...उं.......

ओह चलो ....चलो चलते हैं।