उसका यूँ मुझसे रूठना अच्छा लगा मुझे
अंजानी भीड़ में कोई अपना लगा मुझे
मुद्दत के बाद वो जो अचानक मिले तो फिर
मरकज़ पे जैसे वक़्त भी ठहरा लगा मुझे
दुश्मन के हर फरेब को हँसते हुए सहा
अपनों की बेवफ़ाई से झटका लगा मुझे
करता रहा गुहार मुसलसल वो न्याय की
हर लफ़्ज़ बेजुबान का सच्चा लगा मुझे
क़दमों में बैठ माँ के ‘अजय’ बंदगी जो की
बिगड़ा हुआ जो काम था बनता लगा मुझे