Last modified on 1 अक्टूबर 2018, at 01:48

पितृपक्ष / वीरेन डंगवाल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:48, 1 अक्टूबर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन डंगवाल |संग्रह=इसी दुनिया म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैं आके नहीं बैठूँगा कौवा बनकर तुम्हारे छज्जे पर
पूड़ी और मीठे कद्दू की सब्ज़ी के लालच में
टेरूँगा नहीं तुम्हें
न कुत्ता बनकर आऊँगा तुम्हारे द्वार
रास्ते की ठिठकी हुई गाय
की तरह भी तुम्हें नहीं ताकूँगा
वत्सल उम्मीद की हुमक के साथ

मैं तो सतत रहूँगा तुम्हारे भीतर
नमी बनकर
जिसके स्पर्श मात्र से
जाग उठता है जीवन मिट्टी में
कभी-कभी विद्रूप से भी भर देगी तुम्हें वह
जैसे सीलन नई पुती दीवारों को
विद्रूप कर देती है
ऐसा तभी होगा जब तुम्हारी इच्छाओं की इमारत
बेहद चमकीली और भद्दी हो जाएगी
पर मैं रहूँगा हरदम तुम्हारे भीतर पक्का