Last modified on 27 जुलाई 2008, at 08:01

ज़मीं की प्यास ने जब भी नदी को दी है सदा / शैलेश ज़ैदी

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:01, 27 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलेश ज़ैदी |संग्रह=कोयले दहकते हैं / शैलेश ज़ैदी }} [[Category...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ज़मीं की प्यास ने जब भी नदी को दी है सदा।
पहाड़ तोड़ के पानी में ढल गयी है सदा॥

हमारे दिल की ये धड़कन अजीब धड़कन है।
कभी है दर्द, कभी हौसला कभी है सदा ॥

सुलगते कोयले एक दिन ज़रूर दहकेंगे।
अंगीठियों ने हवाओं से ये सुनी है सदा॥

वो यातनाओं की चोटों से थक नहीं सकता।
हुआ है क्या उसे, क्यों उसकी घुट गयी है सदा॥

लगाओ हमपे न बन्दिश हमें न क़ैद करो ।
हम अपने होंठ भी सी लें तो गूँजती है सदा॥

लगा के आग बहुत मुतमइन हो तुम लेकिन।
घरों से शोले उगलती हुई उठी है सदा॥