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काश / सवाईसिंह शेखावत

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एक जोड़ी जूते
कोने की दीवार से सटा कर रखे हुए
अगल-बगल गर​​दन झुकाए बैठी ख़ामोशी
खिड़की से झाँकता बुझा नीला आकाश
धूप से भरा किन्तु कुछ वीरान-सा दिन
घर के अहाते में पसरी परित्यक्त उपस्थिति
गलियारे तक चली आई मुखर अनुपस्थिति
काश, दृश्य में एक आदमी भी होता
इस होेने को दूर तक ले जाता हुआ!