अनंत श्रृंखला
तुम्हारे साथ बिताये उन लम्हों की और
उसके पीछे छुपा
एक छोटा सा प्रश्न
कब ?
कब तुम्हारा फैलाव
मेरे भीतर हो गया
नहीं जान सकी मैं
पता है
मन की गति को
मजबूत तालों से बाँध पाना
कितना मुश्किल हो गया है
न जाने कब इसके सुनहरे "पर"
निकल आये
कभी उड़ता है आसमान पर
कभी छाने लगता है
घने बादलों की तरह तो
कभी बरसने लगता है,
सावन के बूंदों की तरह
मानो मिलने को बेताब हो धरती से
आज धैर्य का बाँध टूटने को आतुर
जाने क्या बहा ले जाना चाहता है
विनाशकारी बाढ़ में
रोमांचित होता हुआ मेरा रोम -रोम
मन में उठते बुलबुले
लहरों सी उमंगें
मन में गुंजती मधुर तान
वो भूल-सी तुम्हारी एक छुअन
जिस पर न्योछावर है मेरे जीवन का
हर क्षण
बीत गई यामिनी कब की
पर तन सुगंध है
कुंतल के फूलों से आज भी
यूँ तो मोम की तरह
अपने अश्कों से वाकिफ़ थी मैं
फिर भी पिघल कर
तुझे छूने की कोशिश
न जाने क्यों बार बार करती हूँ मैं
दुनियाँ छोटी है,
सुनते हैं
दूर न कोई जा पाता है !
यूँ ही चलते-चलते शायद मिल जाओ तुम भी कभी।