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ज़रा-सी देर के लिए मैं ख़ुद में क्या उतर गया / के. पी. अनमोल

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ज़रा-सी देर के लिए मैं ख़ुद में क्या उतर गया
सभी लगे हैं चीखने, "किधर गया, किधर गया"

जो एक ख़्वाब आँखों में था जाने कब बिखर गया
बिखर के मेरी रूह को उदासियों से भर गया

ये सोच कर तसल्ली दे न पाया ख़ुद को मैं कभी
था ख़्वाब ही तो, क्या हुआ, जो मर गया तो मर गया

न पैरवी तुम अब करो किसी की मेरे सामने
जो एक बार आँख से उतर गया, उतर गया

जहान भर के वास्ते तो आफ़ताब था मगर
न जाने मुझमें क्यों वो ग़म की काली रात भर गया

ये रास्ता हमारी मंज़िलों को जाता ही नहीं
तो क्या शुरू से अब तलक का सारा ही सफ़र गया!

उस इक ख़याल को ग़ज़ल की जान कह रहा हूँ मैं
जो आके ज़िन्दगी की मुश्किलों पे बात कर गया