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घर में / विजयशंकर चतुर्वेदी

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चश्मा रख दिया है मेज पर बोझ़-सा उतर गया है
आ पहुँचा हूँ घर
बेटी ले आई है पानी भरा गिलास
 
कितनी दिलकश हैं चीज़ें
रोज़-रोज़ निकलता हूँ उनके अभियान पर
लौटता हूँ ख़ाली हाथ
अभी उतारे ही हैं कपड़े
पसीने से तर-ब-तर टाँग दिया गया हूँ खूँटी पर
बेटी ने चला दिया है पँखा

इतवार है कल हिलने नहीं देगा नींद से
सपने में पत्नी के साथ टहलूँगा पार्क में
खाऊँगा भुँजी मूँगफली नमक लगाकर

अच्छा लगता है फ़्लोरा-फाउण्टेन पर
बहुत अच्छा लगता है शहीद स्मारक को ताकना
कितने दिनों से गया नहीं उस ओर
यात्रा में कटते हैं घण्टे
ट्रैफ़िक में फँसी बस में दुबका करता हूँ
इन्तज़ार आए कोई हवलदार
आगे बढ़ी हमारी भी बस

बड़बड़ा रही है पत्नी
घर में घट गया है कुछ
और मैं घास पर लोटना चाहता हूँ
पर अहाता ख़ाली है
जिसमेें एक बकरी ढूँढ़ रही है चारा

बेटी बना लाई है चाय
मैं झटक रहा हूँ थकान
किस कदर काट रहा हूँ उधारी की उमर
मरी हुई चिड़िया की तरह फेंक दिया जाता हूँ सुबह-शाम

समय से नहीं होती सुबह
समय से नहीं ढलती रात
तारों की भाषा हो गई है गड्ड-मड्ड घण्टाघरों की घड़ियाँ
 कुछ बोलती नहीं
जान नहीं पाता कोई
कि ठीक-ठीक कितने बज गए हैं ज़िन्दगी में
 
मैं तौलिये में छिपा रहा हूँ चेहरा
 पूछ रही है बेटी ----
‘पापा, मेरी घड़ी आज भी लाए कि नहीं।‘