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चरवाहा / सुरेन्द्र स्निग्ध

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पिछले चालीस हज़ार वर्षों से
अपनी गायों को लेकर
कहाँ-कहाँ नहीं गया मैं
किन-किन जंगलों
पहाड़ियों, दर्रों
नदियों और झरनों के समीप
नहीं पहुँचा हूँ मैं

इन गायों के भारी थनों से
फूटते हैं दूध के झरने
खिलती है एक नैसर्गिक
                      दूधिया रोशनी
नहा जाती है सम्पूर्ण धरित्री

जब-जब बछड़े
हुमक कर पीते हैं दूध
वत्सला बन जाती है पृथ्वी
रचने लगती है नए-नए छन्द
छितरा जाता है
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में
ममत्व का अलौकिक रूप

जब भी रंभाती है
ये गायें
दहल जाती है पूरी प्रकृति
दुलारती हैं नवजात बछड़े को
धरती के सातों समुद्र
मचल-मचल उठते हैं

आज इस हरे-भरे जंगल में
विपदा में पड़ी हैं गायें
मौत खड़ी है सामने
धरकर भूखी बाघिन का रूप

चौकन्नी हैं गायें
प्यार के सुरक्षित घेरों में
समेट रही हैं एक साथ
रंभा रही हैं एक साथ
पुकार रही हैं मुझे
पुकार रही हैं
सदियों साथ चले
चरवाहे को

जिस तरह
नदियों से मिलने के लिए
उफनती हैं बरसाती जल-धाराएँ
हवाओं में घुल जाने के लिए
जैसे पसरती है ख़ुशबू
जीवन के सम्पूर्ण आवेग के साथ
मैं दौड़ता हूँ गायों के बीच

आज मैं दूँगा सत की परीक्षा
लौटेगी नहीं एक भूखी माँ बाघिन
मैं स्वयं बनूँगा
उसका आहार
और एक क्षण को
रुक जाएगी पृथ्वी की गति
सूरज और चाँद और सितारे
क्षण भर के लिए हो जाएँगे निस्तेज
ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण गतियों के साथ
रुक जाएगी
मेरे हृदय की गति
मरूँगा
वीर विसु राउत की तरह

गायों के थनों से
स्वतः प्रस्फुटित दुग्ध-धार
और आँखों से ढलके आँसुओं के साथ
कोसी नदी की उफनती जल-धारा के संग
बह जाएगा
बचा-खुचा, क्षत-विक्षत मेरा शव

पृथ्वी पुनः हो जाएगी गतिशील
दिक्-दिगन्त तक फैल जाएँगी हरियालियाँ
कभी सूखेंगे नहीं आँसू, रुकेगा नहीं दूध
ममता और करुणा की बेली लहराती रहेगी
लहराता रहूँगा युगों तक ध्वज की तरह
मैं — विसु राउत।