Last modified on 25 दिसम्बर 2018, at 22:57

खोज / सुरेन्द्र स्निग्ध

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:57, 25 दिसम्बर 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब आँख लगने के साथ ही
नींद की सीढ़ियों से
चुपचाप उतर आती थीं माँ
उतरती थीं
सिर्फ़ उतरने की रेखाओं की तरह

इन्हीं रेखाओं से
एक आकृति गढ़ने का
करता था असफल प्रयास

अब वे सपने नहीं आते

आते हैं
कुछ दूसरे ढंग के सपने

वर्षों ढह चुकी
बाँस, फूस और मिट्टी की दीवारों पर
एक पुराना कैलेण्डर टाँगने की
निरन्तर कोशिशों के सपने
कैलेण्डर में उभरती तस्वीर
माँ के चेहरे से मिलती-जुलती होती है
शायद इसलिए
उसे टाँगने की कोशिशों के आते हैं सपने
निरर्थक कोशिशें

ज़ोरों की हवाओं के साथ
फट्-चिट् कर उड़ते हुए कैलेण्डर के सपने

ये सपने अब बार-बार आते हैं
ढही हुई वही कच्ची दीवार

फटा हुआ कैलेण्डर
अनपहचाने से चेहरे
वही ज़ोरों की हवाएँ
फट्-चिट् कर बिखरती हुई
रंग-रेखाएँ

अत्यन्त निर्धन थे हम
घर में नहीं है किसी का फ़ोटोग्राफ़
न माँ का
न पिता का
उनमें से अब किन्हीं का चेहरा नहीं है याद

भागती हुई रेखाएँ
साथ लेकर भाग गई सबकुछ

सपनों में जिस कैलेण्डर को टाँगने की
मैं निरन्तर करता हूँ ज़िद
जिसकी तस्वीर भी
वर्षा की धूल और धूप और हवाओं की मार से
हो गई है विलुप्त

प्रेमिकाओं के चेहरों से
कब तलक खोजता रहूँगा
विलुप्त हुआ माँ का चेहरा
कब तलक सूखी रहेगी
सपनों की नदी

जीवन की आधी नदी पार कर जाने के बावजूद
यह खोज
आज भी जारी है
कुछ अधिक ही आवेग से
कुछ अधिक ही आवेश से।