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मैं आऊँगा / संजय शाण्डिल्य

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मैं आऊँगा
यहाँ बार-बार आऊँगा

यहाँ के पेड़
फूल और पत्तियाँ
उड़ती चिड़ियाँ और तितलियाँ
बेहद पसन्द हैं मुझे
उनका होना फिर से देखने
मैं आऊँगा

मुझे पहाड़ यहीं के चाहिए
झीलें और झरने
तालाब, उपवन और वन
सब यहीं के चाहिए
और जैसे हैं, वैसे ही चाहिए

आऊँगा धरती से देखने आकाश
असंख्य तारों की गिनती के
अनगिनत प्रयासों के लिए आऊँगा
चन्द्रमा का अमृत आत्मा में धारने
सूरज की तपिश से फिर-फिर हारने आऊँगा

मैं दुखों से
अभावों से
आनन्दों से बार-बार गुज़रना चाहूँगा
इसलिए आऊँगा

आऊँगा
कि बेहद प्यार है मुझे इस धरती से
मोह के समुद्र में
मैं फिर से डूब जाना चाहूँगा
इसलिए आऊँगा

आऊँगा
कि मुझे प्यास चाहिए और भूख
अकर्मण्यता का छप्पन-भोग मुझे नहीं चाहिए

आऊँगा
वनस्पतियों और प्राणियों के
इसी लोक में फिर आऊँगा
और हाँ,
मोक्ष का हर प्रलोभन
ठुकराकर आऊँगा !