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कौवे-1 / नरेश सक्सेना

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हमारे शहर के कौवे केंचुए खाते हैं

आपके शहर के क्या खाते हैं


कोई थाली नहीं सजाता कौंवों के लिए

न दूध भरी कटोरी रखता है मुंडेर पर

रोटी का एक टुकड़ा तक नहीं


सोने से चोंच मढ़ाने वाला गीत एक गीत है तो सही

लेकिन होता अक्सर यह है

कि वे मार कर टांग दिए जाते हैं शहर में

शगुन के लिए


वे झपट्टा मारते हैं और ले जाते हैं अपना हिस्सा

रोते रह जाते हैं बच्चे

चीख़ती रह जाती हैं औरतें


बूढ़े दूर तक जाते हैं उन्हें खदड़ते और बड़बड़ाते


कोई नहीं बताता कौवों को

कि वे आखिर किसलिए पैदा हुए संसार में !