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भूख / मनोहर अभय

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न सही मेरी कविता में
ज्वालाओं की लपट
दहकते तंदूर में पकी
रोटियों की भभक तो है
—जो बढ़ा देती है भूख
दुपहरी में पत्थर तोड़ने वालों की।

मैं चाहता हूँ
भूख लगे
उसे बुझाने के लिए
छलछला उठे पसीना
गमछे से लिपटे माथे पर
ढावे पर आकर बैठे कोई
आधी बाँह के पुराने कुर्ते से
 पोंछ कर हाथ
छक कर खाए
प्याज के टुकड़े के साथ
गरमागरम तंदूरी रोटी.

मैं सचमुच चाहता हूँ
भूख लगे
खुरदरे हाथों की तपिस से
पिघल कर पानी-पानी
—हो जाएँ चट्टानें
फूट पड़ें
सैकड़ों दबे हुए निर्झर
रेत फाँकती नदियाँ
भर जाएँ रजत धार से
—लबालब
बलुई मिट्टी में
रोपी गईं
खरबूजे की बेलें लहलहा उठें
घाट पर बैठी किशोरियाँ
धोँएँ मेंहदी रचे हाथ
गरमी की तपन से बेचैन बच्चे
डुबकियाँ लगाएँ
बीच धार में
छोटी-छोटी मछलियों को
वैष्णवी माताएँ खिलाएँ
आटे की गोलियाँ।