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अनुनय / राकेश रेणु

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उदास किसान के गान की तरह
शिशु की मुस्कान की तरह
खेतों में बरसात की तरह
नदियों में प्रवाह की तरह लौटो ।

लौट आओ
जैसे लौटती है सुबह
अन्धेरी रात के बाद ।

जैसे सूरज लौट आता है
सर्द और कठुआए मौसम में ।

जैसे जनवरी के बाद फरवरी लौटता है
फूस-माघ के बाद फागुन, वैसे ही
वसन्त बन कर लौटो तुम !

लौट आओ
पेड़ों पर बौर की तरह
थनों में दूध की तरह
जैसे लौटता है साइबेरियाई पक्षी सात समुन्दर पार से
प्रेम करने के लिए इसी धरा पर ।

प्रेमी की प्रार्थना की तरह
लहराती लहरों की तरह लौटो !
 
लौट आओ
कि लौटना बुरा नहीं है
यदि लौटा जाए जीवन की तरह ।

हेय नहीं लौटना
यदि लौटा जाए गति और प्रवाह की तरह ।
न ही अपमानजनक है लौटना
यदि संजोये हो वह सृजन के अँकुर ।

लौटने से ही सम्भव हुईं
ऋतुएँ, फ़सलें, जीवन, दिन-रात
लौटो, लौटने में सिमटी हैं सम्भावनाएँ अनन्त !