झोंपड़ी के बाहर
मटमैले पानी में खेलती
बालिस्त भर की, नन्ही मछली सी ज़िन्दगी
चर्र-चूं की आवाज़ के साथ हिलते
टूटे कब्जों पर अटके, लकड़ी के फाटक से
भीतर माँ को देखती
जो बुन रही है
उंगलियों की सलाइयों
और उतरन की ऊन से
छत,
जो रोज़ थोड़ा फटकर
जोड़ लेती एक और पैबंद
जिसके नीचे माँ रातभर जागती है बंद आँखों से
जिसके उड़ जाने,
बह जाने,
और ढह जाने की बात माँ मुस्कुराकर सुना लेती है
वैसे ही
जैसे वो मुस्कुरा लेती है
मटमैले पानी में नहाकर,
उसमें अपनी भी मिट्टी मिलाकर,
छईं-छपाक के खेल खेलकर,
मुँह में भर, उँगली से दांत माँझकर,
उसे
देहरी से बाहर गड्ढे का पानी
कुआं जितना ही साफ दीखता है,
माँ दिखाती है
घड़ों में भरा मटमैला पानी
बताती है
बारिश में मटमैला होना पानी की सीरत है
वो कहती है,
हाँ,
देखी है उसने भी बारिश की मटमैली नदी,
फिर उसी गड्ढे के पानी से
कुछ बूंदें
छत बुनती माँ की तरफ उछालकर पूछती है
क्या हमारे घर में हमेशा बारिश का पानी आता है?