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सुलक्षण / महेन्द्र भटनागर

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सुबह से आज
किस अव्यक्त से
उर उल्लसित !

सहसा
सुभाषित राग,
दायीं आँख
रह-रह कर
विवश स्पन्दित !

दूर कलगी पर
बिखरती
अजनबी गहरी सुनहरी आब,
पहली बार
गमले में खिला है
एक लाल गुलाब !
न जाने किस
अजाने
आत्म-शुभ सम्भाव्य की
यह भूमिका !
रोमांच पुष्पों से
लदी तन-यूथिका !
शायद,
आज तुमसे भेंट हो !