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पुनरपि / महेन्द्र भटनागर

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मानस में
अप्रत्याशित अतिथि से तुम
अचानक आ गये !
माना —
नहीं था पूर्व-प्रस्तुत
आर्द्र अगवानी सजाये,
हार कलियों का लिए,
हर द्वार बन्दनवार बाँधे,
प्रति पलक
उत्सुक प्रतीक्षा में !

तुम्हीं प्रिय पात्र,
अभ्यागत !
बताओ —
नहीं हूँ क्या
सदा से स्वागतिक मैं तुम्हारा ?

हर्ष-पुलकित हूँ,
अकृत्रिम भूमि पर मेरी
सहज बन
अवतरित हो तुम !
सुपर्वा
धन्य हूँ,
कृत-कृत्य हूँ !

पर, यह सकुच कैसी ?
रुको कुछ देर
अनुभूत होने दो
अमित अनमोल क्षण ये !

जानता हूँ —
तुम प्रवासी हो,
अतिथि हो
चाहकर भी
मानवी आसक्ति के
सुकुमार बन्धन में
बँधोगे कब ?

अरे फिर भी....
तनिक... अनुरोध
फिर भी ....!