यूँ तो हर नगर डगर खुशियों का रेला है।
मन बहुत अकेला है॥
फूल कई रंगों के चमन में सुहाते हैं
भँवरों तितलियों को प्यार से बुलाते हैं
काँटों की चुभन किन्तु कर रही झमेला है।
मन बहुत अकेला है॥
शीतल मृदु मन्द पवन सुरभि को लुटाती है
छेड़ पपीहे की यह किसे नहीं भाती है
पी कहाँ पुकार रहा पंछी अलबेला है।
मन बहुत अकेला है॥
नींदों में स्वप्न परी लोरियाँ सुनाती है
अमराई में कोयल गीत मधुर गाती है
चकई चकवा बिछुड़े करूँ विरह बेला है।
मन बहुत अकेला है॥
थरथरा रही है लौ आज जिंदगानी की
अंतिम है पंक्ति यही अनलिखी कहानी की
दुनियाँ के आंगन अरमानों का रेला है।
मन बहुत अकेला है॥
धरा गगन भ्रमर सुमन प्रेम की कहानी है
राधा मीरा सहजो की लिखी सु बानी है
विधना ने विरह मिलन खेल अजब खेला है।
मन बहुत अकेला है॥