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छूँछ / कुमार वीरेन्द्र

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दवँक रही थी पछुआ तो क्या

नदी किनारे
बूँट की रखवारी में, गम्हार तले
ओठँगे मगन हो गा रहा था, 'अरे कटनी में खटनी बहुते, ऊपर से बहे लुक हो धनी
जा छँहिरा सुसता ल तनि; एके माटी के दुनो परानी, अकेले कइसे सुसताइल बनी
चलऽऽ संगे पिया सोचऽऽ जनि...', कि तलब हुई खैनी की, उठते देखा
सोन्हू काका, जाने कबसे बैठे हैं, जो आँख मिलते
मुस्कुराने लगे, बूझ गया, गा रहा
था, काका ने टोका
नहीं, बस

सुर सँग हो, हरकाते-टरकाते पछुआ बैठे रहे

और काका ही अकेले
थोड़े, काकी सँगे-सँग, काका अब अकेले होते
कहाँ, घर से निकलते काकी साथ होतीं, एक ही था बेटा, जिस मैना का सुगवा हुआ
उसी के घरवालों ने, मरवा, गँगा में फेंकवा दिया, टूट गए थे दुनो, पैसा ना ताक़त, ना
कवनो गवाह, ऊपर से धमकी, पूछो तो कहते हैं, 'मुदइयों को लगता है
हमार एके बेटा, अरे जवन-जवन पियार करे, ऊ सब
हमार बेटा', कि कबहुँ काका-काकी
ने भी परेम-बियाह ही
किया था

तबहीं तो मानुस मारे चाहे दवँकत पछुआ

अपने रँग, सँगे-सँग
पतइयों में से निकाल, पानी पीने को बोतल जैसे
ही बढ़ाया, काका कह पड़े, 'गा रहे थे, बेटा, सुनते लग रहा था, जवानी के दिन लउट आए...' इस
पर काकी मुस्कुराते लजा-सी गईं, पानी पी दुनो जाने लगे, इहे सोच कि फसल तो कट चुकी, अब
कवन आसरा, कल भी आ जाते, पाँजा-भर मिल जाती, लेकिन का जानते थे
हार्वेस्टर का हो जाएगा जल्दी जुगाड़, दिन-भर में कट जाएँगे
खेत, भायँ-भायँ हो जाएगा पूरुब-भर बधार
अवगते पछिम न जा, पूरुब
ही चले आते

पछुआ मुँहे आँचर ना चीन्हे गमछी, तो का

चली जा रहीं काकी
हाथ में अचार का कमण्डल लिए, काका छूँछे हाथ
छूँछे हाथ काका को कबहुँ न देखा, जब देखा रिक्शा चला आते, जाते देखा, जिस पर अपने बेटे
सँग मुझे भी स्कूल के लिए बैठा लेते, ढली जवानी किसी की हरवाही करते देखा, बेटे की हूक से
उबरे तो जोताई-बोआई के समय बधारे-बधार दु मुट्ठी अनाज, पाँजा-भर डाँठ
को अचार लिए फिरते देखा, चले जा रहे दुनो परानी, आए थे
अचार के बदले लेने डाँठ, कट चुकी तो का
करते, 'काका, खैनी नाहीं
खाओगे...?'

सुनते ठिठक गए, ठिठक-सी गई पछुआ भी

नहीं भी होती इच्छा
कैसे कहते ना, चले आए और बैठते कह पड़े
'आज तो ई गजबे पछुआ, बेटा, दवँक नाहीं रही, लहक रही...', और खैनी बनाकर दी तो
फिर चलने को दुनो परानी उठ खड़े हुए, 'काका, होरहा खाने का मन है, देखो ऊ कोन प
हरियर अबहीं बूँट, उखाड़ लो...', और काका बूँट उखाड़ चले जा रहे
उन्हें जाते देखता रहा, ओठँग इहे सोचता रहा, अगर
पछात बूँट न बोया होता, भायँ-भायँ
बधार में भायँ-भायँ लगते
दुनो परानी

बेआस में पछुआ बाँधे और हाहाकार

सोच रहा था
और देख रहा था कि गम्हार की एक
डाल प पतइयों बीच दो पंछी संगे सुस्ता रहे, लगा, साँचो आज लहक रही पछुआ लह
लह, कि तब तक कानों से टकराए मीठे बोल, चौंक देखा, दूर दुअँठियवा आम के नीचे
काकी पतई ला-ला दे रहीं, काका झोंक रहे पतई, झोर, झोर रहे होरहा
और उनके 'बोल' इहाँ तक चहुँपा रही पछुआ, 'अरे
कटनी में खटनी बहुते, ऊपर से बहे
लुक हो धनी, जा, जा
छँहिरा

सुसता ल तनि...!'