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ईर्ष्या / महेन्द्र भटनागर

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ईर्ष्या
करो नहीं,
ईर्ष्या से
डरो नहीं !

किसी की ईर्ष्या-अभिव्यक्ति
संकेतित हो
वाचिक हो
क्रियात्मक हो
तुम्हारी सफलता
बोधिका है !
आत्म-गहनता
शोधिका है !

उससे त्रस्त क्यों होते हो ?
इतने अस्तव्यस्त क्यों होते हो ?

ईर्ष्या
जितनी स्वाभाविक है
उसका दमन
उतना ही आवश्यक है।

ईर्ष्या का
दलन करो,
वरण नहीं !

ईर्ष्या-आश्रय को
सन्तुलित करो,
प्रगति-प्रेरित करो।
उसे विकास के
अवसर दो,
उसके हलके मानस में
गरिमा भर दो।

फिर कोई ईर्ष्या नहीं करेगा,
फिर कोई ईर्ष्या से नहीं डरेगा।

जिस दिन —
मानवता
ईर्ष्या के घातों-प्रतिघातों को
सह जाएगी,
उस दिन से —
वह मात्र
संचारी-भाव-विवेचन में
महत्त्वहीन हो
काव्य-शास्त्र का साधारण विषय
रह जाएगी !