अपना हो चाहे
किसी और का, उसे आम के पेड़ों
से बहुत लगाव था, बाबा की तरह कबहुँ अँकवारी भरती तो नहीं
भीरी से गुज़रती, किसी पेड़ को एक बार छूती ज़रूर, और कबहुँ
देखती, कटते कोई पेड़, आम-महुआ, कोई भी
पेड़, यह नाहीं कहती, ‘काहे
काट रहे हो...?'
कहती
‘ई पेड़वा को मुआ काहे रहे हो, भाई…?’
केहू कहता, 'का
कहें, परेशानी है तनि...', कुछ पइसा देके बचा
लेती, केहू नाहीं मानता, झगड़ा-झँझट थोड़े करती, कहती, ‘पेड़वो तो सवाँग
हैं, मुआवे के नाहीं, जियावे के चाहीं’, एक बेर पूछा, ‘तुम तो अजीबे हो, एक
तो गोइँठा बेचके पइसा बटोरती हो, कबहुँ इनको-उनको
तो कबहुँ जे मुआवे पेड़, उसे दे देती हो
ई बताओ, सब पइसवा
दे ही दोगी
मैं कइसे पढ़के जज-कलटर बनूँगा…?'
सिर पर हाथ
फेरते कहती, ‘फिकिर ना कर
सब हो जाएगा…अब का करूँ, बेटा, का करूँ...अदिमी हूँ
तो अदिमी को मुआवत, कइसे देख सकती हूँ…’, और जब
तक छोटा था, इहे समझता-बूझता रहा
नाहीं, कवनो फरक नाहीं
ई सब पेड़ भी
हमारे जइसन ही
अदिमी हैं !