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कठौती में गंगा / रणजीत

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मन चंगा तो कठौती में गंगा
कितना सही पर्यवेक्षण है सन्त रैदास का
कल मैंने इसे प्रत्यक्ष अनुभव किया
गंदला हो गया था मेरा मन कल
अपनी ही पत्नी से
तो कुछ क्षण के लिए लगा
अपना पूरा जीवन निरर्थक
पूरा परिवेश बेगाना
पूरी दुनिया नरक
अपने आप को हटाने के लिए उस मन:स्थिति से
उस्मानिया अस्पताल के
स्पेशल वार्ड के बैड पर लेटा हुआ
मन ही मन दुहराने लगा
अपनी एक प्रारंभिक कविता- ‘ये सपने : ये प्रेत’
एक बिल्कुल दूसरी दुनिया की
अजनबी सी लगी मुझे अपनी ही कविता
उस अतीत की जो न जाने कहां दफन हो चुका है।
जब तक मन रहा उसके व्यवहार पर
क्रुद्ध और क्षुब्ध
जीने लायक नहीं लगी जिन्दगी
भाग जाने लायक नहीं लगी कोई जगह
- कोई शरण स्थली
किसी मित्र, नातेदार, भाई-बहिन, किसी का घर
सब कुछ लगा अभिशाप-ग्रस्त।
आज मन चंगा हुआ है
तो लौट आयी हैं सारी खुशियां
यही संसार हो उठा है अपना
जिसके न जाने कितने जाने-पहचाने कोने हैं
कितने कोटर हैं प्यारे-प्यारे
रहा जा सकता है जिनमें
पूरी हंसी-खुशी के साथ।
‘सचमुच सब कुछ निर्भर करता है मन पर’
मन कहना चाहता है
पर बुद्धि उसमें संशोधन करती है-
‘सब कुछ’ नहीं तो, कम से कम ‘बहुत कुछ तो’
मन अच्छा हो, स्वस्थ हो
तो एक स्वच्छ सरोवर लगता है पूरा संसार
मन गंदला हो तो गंदला जाता है
पूरा का पूरा जीवन-व्यापार
‘खैर कुछ अच्छाई बुराई तो है ही बुनियादी
इस दुनिया में’ कहता है मेरा विवेक
पर बाकी सब रचता है हमारा ही मन
रंगता है अपने रंग में
हमारा ही स्वस्थ या रुग्ण मन
इसलिए मन को बचाओ राग और द्वेष से- सोचता हूँ
नहीं, केवल द्वेष से और
क्रोध से और क्षोभ से और अहंकार से
और रंगों उसे राग से / महाराग से
फिर देखो कि कितना अपना हो उठता है
यह संसार
इसका एक-एक अणु
इसकी एक-एक इकाई।