अब तो भय लगता है सियासत से
(झूठ कहते हैं लीलाधर जगूड़ी : भय भी शक्ति देता है)
मूर्तियाँ और अभी टूटेंगी
ख़्वाब भी बेहिसाब टूटेंगे ।
'जागते रहो' का नारा देकर
लोग सोते हुओं को लूटेंगे ।
जिनको मजहब पे था यक़ीन बहुत
उनकी मजहब का सोच तंग हुआ
भाई मारा गया जो दँगे में —
उनका मजहब से मोहभँग हुआ ।
दँगों में निहित खाद-पानी हैं
मुल्क़ की रगों में जवानी है
हाथ में ले त्रिशूल, वे बोले
अबकी दुगुना फ़सल उगानी है ।
उनका कहना 'अलख निरँजन' था
और फिर होना मूर्ति भँजन था
भीड़ में था भला विवेक कहाँ
हर तरफ़ शोर और क्रन्दन था ।
उनका मकसद था क्रान्ति हो जाए
पाँच सालों की शान्ति हो जाए
ध्वंस के बाद सृजन होता है —
हो न हो, रक्त क्रान्ति हो जाए ।
जो भी फिरकापरस्त घूम रहे
अपने आका के चरण चूम रहे
काइयाँपन है उनके चेहरे पर
खादियों में जो लोग झूम रहे ।
रोड-शो आज उनका होना है
भीड़ को फिर से जिबह होना है
एक अरसा हुआ है जंग लगे
खड्ग को फिर लहू से धोना है ।
कोई बजरँग बली कहता है
कोई ऐलान-ए-अली कहता है
इस सियासत में सभी जायज है
उनके भीतर का छली कहता है ।
अब यहाँ पर फकीर कोई नहीं
साधु लाखों हैं, पीर कोई नहीं
मुँह से नेता ज़हर उगलते हैं
अब जबॉं का अमीर कोई नहीं ।
वो घरों में दुबक के बैठे हैं
लोग अन्दर सहम के बैठे हैं
फिर न हो कोई गोलियों का शिकार
जिरह-बख़्तर पहन के बैठे हैं ।
तुम हो इनसान या भगवान हमें क्या मतलब?
लाखों लोगों के हो अरमान हमें क्या मतलब?
अब सियासत में अहम है यही मुद्दा, साधो !
तुम हो हिन्दू या मुसलमान हमें ये मतलब ।
जितने गुण्डे औ' मवाली हैं, काम आएँगे
माफ़िया और बवाली हैं, काम आएँगे
इनके बलबूते है जम्हूरियत की हरियाली
सब सियासत के ही माली हैं, काम आएँगे ।
फिर विजय का जुलूस निकलेगा ।
दर्प-ओ-उन्माद और पिघलेगा ।
अब तो भय लगता है सियासत से
फिर वो क़ातिल शहर से गुज़रेगा ।