हर उत्सव, हर पर्व
यज्ञ, अनुष्ठान
हर त्यौहार के
रंग आकर्षक
हो गये फीके...
बिंदी, बिछुए,
मेहंदी, आलता
श्रंगार सब
हो गया तुच्छ
महत्वहीन,
जब से, तुम
रूठ गये...
अब,
एकाकीपन से
मन घबराता है
स्वयं का
प्रतिबिंब तक
डराता है,
तोड़ दिया आज
आईना आख़िरी...
बस चाहत है
आलिंगन कर
मृत्यु का
देख पाऊँ तुम्हें
और सजा लूँ
तुम्हारे लिये
प्रेम की चमकती
बिंदिया माथे पर!