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अपनी सुबह को बचा लो / विनोद विक्रम केसी

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घासलेट गिराया गया है
तुम्हारी सुबह के ऊपर
हाथ में फूल जैसा दीखता हुआ
माचिस का डिब्बा लिए हुए
खड़ी है अन्धकार की विशाल मुद्रा
बचा लो
हर हाल में बचा लो अपनी सुबह

अगर वे तुम्हारी सुबह को जलाकर
राख कर दें
तो तुम अपनी सारी ज़िन्दगी
कर दोगे बन्दूक के हवाले
कभी बेफ़िक्र प्रेमी हो न पाओगे
गुलाबों पर कविता न लिख पाओगे
अपने पहले शिशु की पहली मुस्कुराहट पर
आँखे भर न पाओगे
ताउम्र रह जाओगे बंदूकधारी
इतनी खोखली हो जायेगी दुनिया
जिसे पृथ्वी की सारी गोलियों की आवाज़ भी भर न पाएगी

तुम बन्दूक के अम्मली हो जाओ —
यही चाहते हैं वे
बन्दूक को भयँकर रोग साबित कर
ये चाहते हैं तोप चलाना तुम पर

अगर तुम्हारी सुबह
जलकर राख हो गई
तो पेड़ कम पड़ जाएँगे जँगल में क्रूर तमाशे के लिए
दहशत इतनी होगी
की पेड़ से लटकाए गए
अपने कम्युनिस्ट बेटों को देखकर भी
माँएँ रो न पाएँगी
और गरुड़ पुराण के हाथों
झोपडियों को एक-एक नरक बाँटा जाएगा
तुम्हारे सपने जलमग्न होंगे
लेकिन दम निकलते वक़्त
वे तरसेंगे एक घूँट जल के लिए

तुम्हारी सुबह
जलकर राख हो गई
तो तुम्हारी ज़िन्दगी के तालाब में
कमल नहीं कुल्हाड़ी खिलेगी
और तुम पर वार करेगी
पीछे से आगे से

बचा लो
हर हाल में बचा लो अपनी सुबह ।