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सतपुड़ा / विश्वासी एक्का

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एक

मेरे भीतर उग आए सूने जँगल से
सतपुड़ा का जँगल अलग था
चिल्पी की वादियों में
बैगा स्त्रियों की आँखों से
झाँक रहा था मेरे भीतर का मौन……।

उस ऊँचे टोंगरी पर खड़ा वाच-टॉवर
किसी पुरखे की तरह प्रहरी बन गया था ।

पर कहीं कुछ तो था इन वादियों में
पहाड़ों के समानान्तर
लहरदार कोई वेदनासिक्त
उभर आई थी एक कराह....
जैसे कोई आवाज दे रहा हो ।

सरोदा के पीछे से
जब पानी की गहराई में
डूब रहा था सूरज
एक नाविक
विरह-गीत गा रहा था ।

चिल्पी के लोकगीतों में
मानो मेरा आदिम राग
प्रस्फुटित हो चला था ।

एक सूखा पेड़
जाने कब से खड़ा था
मानो किसी अपने की
बाट जोह रहा था ।

दो

मैं सतपुड़ा के पूर्वी छोर पर खड़ी थी
सरोदा उलाँचे मार रहा था
मवेशियों का रेला
थमने का नाम नहीं ले रहा था ।

पश्चिमी छोर पर सुनाई दे रहा था
एक गदगद नाद ।
नर्मदा उल्लास से भर उठी थी
और पूर्व की ओर
सोन छोड़ चुका था एक पतली धार
एक किनारे पर सूख रहा था
या कौन जाने
अन्तःप्रवाही हो चला था ।
कगारों पर भर चुकी थी
अगाध गाद ।

मेरे लिए इतना भर जान लेना काफी था
उन दोनों का प्रेम
सतपुड़ा की वादियों में
हरा रंग भर चुका था ।

तीन

तराशे हुए चमकते पत्थर
नदी की सम्पत्ति हैं
रेत उसकी है
सरकण्डे उसके हैं
मछलियाँ उसकी हैं
कलकल निनाद उसका है ।

पूरी रात चमकते तारों को पता है
अमावस उन्हीं की है
पूरनमासी उन्हीं की है ।

सीपियों को पता है
समन्दर उनका है
गर्भ में पल रहे मोती उनके हैं ।

तुम्हें भी तो यही पता था
कि जँगल तुम्हारा है
जँगल में सदियों से बसे पुरखों ने
तुम्हें यही तो बताया था ।

हमारे पुखा कवि ने भी यही लिखा —
बाघ वाले ,शेर वाले, सात-सात पहाड़ वाले
अजगरों से भरे जँगल
कष्टों से सने जँगल
इन वनों के ख़ूब भीतर
चार मुर्गे चार तीतर
पाल कर निश्चिन्त बैठे
गोड़ तगड़े और काले ।

सोच सकते हो कि
अब तुम्हें जंगल का दुश्मन बताया जा रहा है
सच लिखा कविवर आपने —
सतपुड़ा के घने जँगल
नींद में डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जँगल ।