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वसन्तोत्सव / विश्वासी एक्का

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साल वनों में
गमक उठेंगे सरहुल
सरई बीज कल्पनाओं के पंख लगा
उड़ चलेंगे हवाओं के संग गोल-गोल ।

सेमल के फूल मखमली ओठों को मात देंगे
परसा के फूलों से
दहक उठेगा जंगल ।

सम्भव है सूरज भी फीका पड़ जाए तब
कोरेया के फूलों का उजास
कनखियों से चाँद को देख
धीमे से मुस्कुराएगा
महुआ भी इतरा-इतरा कर
गुच्छों से टपकेगा ।

गूदेदार डोरी की महक से
खिंचे चले आएँगे सुग्गों के झुण्ड
तुम महसूस न करना चाहो कुछ भी
ये भी ठीक है …।

कभी ऊब जीओ शहर के कोलाहल से
तो चले आना जंगल
लेकिन छोड़ आना शहर में
अपना दिखावा, अहँकार, कुटिलता
और नाक-भौं सिकोड़ने की
अपनी आख्यात सोच ।