लेखनी उठी बुद्धचरित लिखने
मौन और विदीर्ण लगी दिखने।
अब बुद्ध पूर्णिमा अवसान पर है,
लेखनी की दृष्टि युग-ध्यान पर है।
वह अब पीड़ा लिखने को आतुर,
देख रही मरते बुद्ध मानव-भीतर।
मोह में रमा हुआ सिद्धार्थ- आज
देखता मात्र अपने ही सुख-साज।
दुःख न दे सिद्धार्थ को वृद्ध पीड़ा,
विचलन नहीं, मृत्यु लगती क्रीड़ा।
जो दूजे की पीड़ा से विचलित था,
सुख में हो भी दुःखी-उद्वेलित था।
दूर की कौड़ी है, आत्म-विश्लेषण,
तिल-तिल मरता बुद्ध, हुआ क्षरण।
यह युग अब आत्म-प्रवंचन का,
विरक्ति नहीं, भौतिक मंचन का।
सिद्धार्थ भाव छोड़ बुद्ध उभरेगा,
क्या प्रपंची मानव स्व-रूप धरेगा? ......