Last modified on 20 मई 2019, at 13:42

नदी / निकिता नैथानी

नदी को समझने की कोशिश में कुछ पंक्तियाँ
कि किस तरह सदियों से निरन्तर बहती हुई,
आम और खास के लिए समान रूप से देखभाल करती हुई
आज किस हालत में पहुंच गई है – नदी
 

वह जो समय का इतिहास
कहती जा रही है
वह नदी है जो लगातार
बहती जा रही है

जिसके जल से पुष्पित
पल्लवित जीवन हुआ
जिसके तटों पर
सभ्यताएँ गीत गाती हैं
जो अपने प्रेम की छाया में
सबको समेटे जा रही है
वह नदी है जो
लगातार बहती जा रही है ।।

जिसने देखा है उठके
ख़ाक होना सभ्यताओं का
जिसने देखा है होता खेल
सिंहासन का सियासत का
कि जिसके रेतीले आँचल को
चीरा है हथियारों ने
कि जिसके प्राण को रक्तिम किया
मासूमों की जानों ने
वह आज भी उस मँज़र पर
तड़पती जा रही है
वो नदी है जो
लगातार बहती जा रही है ।।

कि जिसने देखी है
मासूम-सी अल्हड़ जवानी
सर पर गागरी पैरों में
छम-छम पायल बजाती
कि जिसकी हंसी की
खनक से था पनघट महकता
वह भर के आँख में आंसू
उस दिन चुपचाप आई
वह नदी की गोद में
अब तक सिसकती जा रही है
वह नदी है जो
लगातार बहती जा रही है ।।

जिसने देखा है महकना
बसन्ती हवा का
जिसने देखी है छटा
बरसात की फुहारों की
जिसके किनारों पर बहारें
झूम उठती थीं जब
उठता था मन में ज्वार और
मिल जाती थी अकस्मात नज़रें
वह शर्म-ओ-हया से भीगती
पलकों में ठहरी जा रही है
वह नदी है जो
लगातार बहती जा रही है ।।

कि जिसने हमको
जीवन दिया, दर्शन दिया
कि जिसने जगत को
दान में अमृत दिया
उसी का स्वर समस्त
शक्ति से निचोड़ डाला
उस का कण्ठ अपनी
हथेलियों से घोंट डाला
फिर भी वो माँ है
हमको सहती जा रही है
वह नदी है जो
लगातार बहती जा रही है ।।