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हमारी दुनिया / कर्मानंद आर्य

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मेरे गाँव के कसाई बाड़े में, फैली हुई है मरघट की शान्ति
यहाँ ऱोज थोड़ा-थोड़ा मरती है हवा
लाल लपलपाती है आग की जीभ
गाभिन गायें डरती हैं बच्चा जनने से
खुरदरी बाकियों से कटते हैं कमजोर कंधे

इतिहास गवाह है हमारा इतिहास नहीं
हम नहीं गाते गौरव गाथा
हमने जब लिखना चाहा अपना इतिहास
काट दी गईं हमारी अंगुलियाँ
हँसना भूल गई हैं हमारी पीढियां
साठ सालों की उम्मीद उतार रही है केंचुल

दीन-हीन दलित वंचित जैसे शब्दों का साहित्य
हमारे सपनों को करता है कमजोर
हमारे हिस्से में काली कोयल नहीं गाती
हाँ मल्हार बजता है हमारे चुचुवाते घुटनों से

यह मेरा गाँव चमारन चूड़िहारन बाम्ह्नान
सबके अपने अपने ठिकाने ऊचें और चमकदार
पर नहीं ऐसी कोई सड़क
जो उत्तर को दक्षिण से जोडती हो
दक्षिण यानी हमारे मुहल्ले को

यहाँ उम्मीद से भीगी पलकें
अलशुबह हो जाती हैं मजदूर
ऱोज लाना ऱोज खाना हमारी नियति

हमारी बेटियां कुपोषण का शिकार हैं
सारा अनाज खा जाती है आंगनबाड़ी
पुष्टाहार खा जाती हैं साहब की गायें
विकास की धीमी रफ़्तार दर्ज होती है
मस्टररोल में काली स्याही से

विकास के प्लान सबप्लान
डकार जाती हैं भोली सरकारें
उनके जबड़े पर लगा खून देखती है निरीह जनता
मरे हुए प्रतिरोध के साथ

कठिन समय है हमें पढ़ना है कानून
हमें भूख के खिलाफ बगावत करनी है
हमें अन्याय के खिलाफ खड़े होना है
हमें मागना है सूचना का अधिकार
हमें लिखना है नया संविधान
हमें बनानी है नई दुनिया
हमें वह सब करना है
जो न्याय के खिलाफ है